कांग्रेस के चापलूस हैं लालू : मुलायम




 समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने मंगलवार को कांग्रेस के साथ-साथ राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि केंद्र की कांग्रेस सरकार डरपोक है। उसमें देश की समस्याओं से लड़ने का साहस नहीं है। देश की सीमाएं खतरे में हैं। मुलायम ने लालू का नाम लिए बगैर उन्हें कांग्रेस का चापलूस बताया।
पार्टी मुख्यालय में सपा राज नारायण की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में सपा प्रमुख ने महंगाई, भ्रष्टाचार व बेकारी के लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि कांग्रेस ने मुसलमानों को निराश और दुखी किया है। मुलायम बोले, कांग्रेस बेहद कमजोर हो गई है और समाप्तप्राय है। लालू का नाम लिए बगैर मुलायम ने उनके अंदाज की नकल करते हुए कहा कि एक नेता है, जो मसखरी करता रहता है और कोई भी उसे गंभीरता से नहीं लेता। इन दिनों यह नेता कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी की चाटुकारिता में लगा हुआ है।
मुलायम ने कहा कि नरेंद्र मोदी से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कुछ लाभ मिल सकता है, लेकिन कांग्रेस और भाजपा में किसी को बहुमत नहीं मिलेगा और देश में तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी। सपा प्रमुख ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि वे निराश न हों। राज्यों में क्षेत्रीय दल जीत रहे हैं और सपा भी जीतेगी।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि अब सपा को अन्य प्रदेशों में भी फैलाना है। दुनिया समाजवाद की ओर लौट रही है। उन्होंने इस अवसर पर अपनी सरकार कर उपलब्धियां भी बताई। इस अवसर पर सपा के कई नेता और मंत्री भी मौजूद थे।

मुज़फ़्फ़रनगर दंगों से किसका नुक़सान?

मुज़फ़्फ़रनगर में इस साल सितंबर में हुए दंगों ने पहले ही इलाक़े के साम्प्रदायिक सौहार्द को छलनी कर दिया था, लेकिन राजनीतिक दल अब भी उसकी आग में हाथ सेकने में लगे हुए हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई मानवीय संवेदनाओं को पीछे छोड़ चुकी है.

मुलायम एक ओर तो मुस्लिम वोट के लिए पुरज़ोर कोशिश में हैं और दूसरी ओर जाट वोट भी खोना नहीं चाहते. 2009 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से केवल चार सीटें मिली थीं, जबकि बहुजन समाज पार्टी को सात, भाजपा और राष्ट्रीय लोकदल दोनों को पांच-पांच और कांग्रेस को केवल दो सीट मिली थीं.समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का यह कहना कि राहत कैंपों में अब क्लिक करेंकोई दंगा पीड़ित नहीं हैबल्कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के षड्यंत्रकारी समर्थक हैं, उसी वर्चस्व की लड़ाई का एक पहलू है.

जाट वोट की खातिर

2012 के विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र से जहाँ मुलायम सिंह के दल को 23.8 प्रतिशत वोट मिले थे, बहुजन समाज पार्टी को उससे कहीं अधिक 28.7 प्रतिशत वोट मिले.
ऐसा तब है जब इस क्षेत्र में मुसलमान मतदाता 15 से 45 प्रतिशत हैं और 'मौलाना' मुलायम उनके हितों के सबसे बड़े रक्षक.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता की बेरुखी देखते हुए ही समाजवादी पार्टी जाट (10 से 42 प्रतिशत) और अन्य पिछड़ी जाति (10 से 25 प्रतिशत) के मतदाता को जीतना चाहती है क्योंकि दलित जिनकी संख्या 15 से 30 प्रतिशत के बीच है, लगभग पूरी तरह मायावती के साथ हैं.
दंगा पीड़ितों के लिए यदि मुलायम को क्लिक करेंबहुत हमदर्दी नहीं है तो उसके पीछे जाट वोट को बचाना मुख्य उद्देश्य है. उनकी रणनीति साफ़ है- मुस्लिम मतदाता समझेगा कि भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता को केवल समाजवादी पार्टी ही रोक सकती है इसलिए वे थोड़ा आश्वस्त हैं.
दूसरी ओर क्योंकि दंगों के बाद क्षेत्र में भाजपा का पलड़ा निश्चित रूप से भारी हुआ है, मुलायम का ध्यान जाट वोट पर केंद्रित है.
जाट वोट के लिए भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की 111वीं जयंती को भी समाजवादी पार्टी ने उसी दृष्टिकोण से मनाया.
23 दिसंबर को एक समारोह में मुलायम ने वैसे तो अपने विधायकों और कार्यकर्ताओं को नसीहत दी कि वे गुंडागर्दी बंद करें, किन्तु वे चरण सिंह की प्रशंसा करना नहीं भूले. उसी दिन उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय लोकदल के कार्यकर्ताओं को चरण सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने से रोका.
20 दिसंबर को समाजवादी पार्टी के महासचिव और मुलायम के छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर चरण सिंह को भारत रत्न की उपाधि देने की मांग की. उसी दिन पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने एक बयान में कहा कि राजनीतिक दृष्टिकोण से मुलायम सिंह चरण सिंह के ज्यादा नज़दीक थे. 18 दिसंबर को प्रदेश सरकार ने चरण सिंह के जन्मदिवस 23 दिसंबर को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया.

राजनीतिक बाज़ीगरी

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वोट के लिए यह राजनीतिक बाजीगरी केवल मुलायम तक सीमित नहीं है. क्लिक करेंमुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगे चौधरी अजित सिंह के लिए भी उतने ही चिंताजनक हैं. संकल्प दिवस के रूप में मनाए गए 23 दिसंबर को राष्ट्रीय लोकदल ने मेरठ में एक जनसभा में अजित सिंह ने कहा, "यदि दोनों सम्प्रदायों के किसान एकजुट नहीं होते, तो आपकी पार्टी (राष्ट्रीय लोकदल) सत्ता में नहीं आ पाएगी."
उनकी चिंता वाजिब है. अभी तक उनकी पार्टी को दोनों ही संप्रदायों के वोट मिल रहे थे किन्तु दंगों की आंच उन्हें नुकसान पहुंचा सकती है. अजित सिंह को यह भी चिंता होगी कि वे हरित प्रदेश की मांग को अमली जामा पहनाने में असफल रहे हैं. उस दिशा में मायावती ने विधानसभा से हरित प्रदेश के गठन के लिए प्रस्ताव पारित करवाकर अजित सिंह को पीछे छोड़ दिया था.
इस पूरे प्रकरण में यह तो तय है कि भाजपा को सीधा फायदा होगा. मायावती, जो इस मामले में ज़्यादा बयानबाजी नहीं कर रही हैं, को भी उम्मीद है कि अबकी मुसलमान और दलित वोटर यहाँ सात से कहीं अधिक सीट दिलवाएगा.

राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष नहीं चाहते हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या कम हो. समाजवादी पार्टी उनके लिए उतना ही बड़ा खतरा है जितनी भाजपा. देखना है मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे किसको कितनी चोट पहुंचाते हैं.

राजनीति की नई संस्कृति

दिल्ली में आप की सरकार अस्तित्व में आ रही है। यह भारतीय राजनीति में नई संस्कृति की शुरुआत होगी। जब इस देश में राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से पोषित राजनीति को कड़वी हकीकत मान चुके थे आप ने दिखा दिया है कि ईमानदारी से इकट्ठा किए गए चंदे से चुनाव लड़ा भी जा सकता है और जीता भी। यही अपने आप में स्थापित दलों को झकझोरने के लिए काफी है। भ्रष्टाचारियों और अपराधियों में साठ-गांठ के कारण राजनीति पर अपराधियों का दबदबा कायम हो चुका है। आप ने एक ऐसा तंत्र विकसित किया, जिसमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। अभी तक चुनाव लड़ने और सरकार के गठन के लिए तैयार होने तक में आप ने अनेक अभिनव किए हैं। ईमानदार उम्मीदवारों का चुनाव, चुनाव लड़ने के लिए वित्ता प्रबंधन, सरकार बनाने से पहले जनता से रायशुमारी, क्षेत्रवार घोषणापत्र जारी करना आदि अनेक मुद्दों से स्पष्ट हो जाता है कि आम आदमी पार्टी ईमानदार राजनीति पर चल रही है। आप की चयन प्रक्रिया भी ऐसी है कि इसमें कोई अपराधी टिकेगा ही नहीं। अत: एक ही झटके में राजनीति को अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के चंगुल से मुक्त कराने के असंभव से दिखने वाले काम को आप ने आसानी से करके दिखा दिया है।
अब आप सरकार में आने के बाद स्थापित राजनीतिक संस्कृति को बदलने की तैयारी में है। आप के मंत्री लालबत्ताी वाली गाड़ियों, सुरक्षा, बंगले आदि सत्ता के प्रतीक चिन्हों से दूर रहेंगे। इससे न सिर्फ नेता व जनता के बीच की दूरी कम होगी, बल्कि बहुत सा अनावश्यक खर्च भी बचेगा। जन प्रतिनिधि सही अथरें में जनता का प्रतिनिधित्व करेंगे। जब नेता अपनी सुविधाओं को कम कर देंगे तभी तो वे नौकरशाहों से भी उनकी सुविधाओं को कम करने के लिए कह सकते हैं। यदि आप के नेता ईमानदारी से काम करते हैं तो विभिन्न विभागों में होने वाले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना आसान हो जाएगा। अभी भ्रष्ट नेता के नाम पर छोटे कर्मचारी भी भ्रष्टाचार करते हैं, किंतु जब नेता घूस व कमीशन लेना बंद कर देंगे तो भ्रष्टाचार पर नीचे तक अंकुश लगेगा। इससे सबसे ज्यादा दिक्कत होगी नौकरशाहों को, जो सबसे च्यादा सुविधाओं का उपभोग करने के आदी हो गए हैं। उनके लिए गलत पैसा लेना बंद करना कष्टदायक होगा। पहली बार भारत में यह संभावना बनती दिख रही है कि विभिन्न सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार खत्म किया जा सकता है, दलाल संस्कृति से मुक्ति मिल सकती है, प्रशासन के काम में पूर्ण पारदर्शिता आ सकती है। भाजपा तो सिर्फ सुशासन की बात ही करती रही। उसने भी अंतत: राजनीति में टिके रहने के लिए कांग्रेस की ही भ्रष्ट संस्कृति की नकल की। पर आप यह काम करके दिखा सकती है क्योंकि इसका शीर्ष नेतृत्व अवसरवादी नहीं है और नैतिक मूल्यों में उसकी निष्ठा है।
यदि आप ने विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने में सफलता हासिल की तो जनता में उसकी लोकप्रियता बढ़ जाएगी। आम आदमी की सबसे अधिक रुचि स्थानीय मामलों में रहती है। अरविंद केजरीवाल का शुरुआती काम दिल्ली की गरीब बस्तियों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ था। उनकी साथी संतोष कोली, जिनका कुछ माह पहले देहांत हो गया, इसी संघर्ष से निकली एक जुझारू कार्यकर्ता थीं। इसी तरह पेंशन की योजनाओं को दुरुस्त करना और ठीक से क्त्रियान्वयन कराना, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की व्यवस्थाओं को पटरी पर लाना उनकी लोकप्रियता बढ़ा सकता है। शिक्षा का अधिकार कानून लागू है, किंतु गरीब बच्चों को आरक्षण की व्यवस्था के तहत अच्छे विद्यालयों में दाखिला मिलने में काफी दिक्कत आ रही हैं। कायदे से तो आप को समान शिक्षा प्रणाली लागू कर देनी चाहिए, यानी हरेक बच्चे के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था। जो बंगले आप के मंत्रियों के न रहने से खाली रहेंगे उनमें विद्यालय या चिकित्सालय खोले जा सकते हैं। यदि हम हरेक बच्चे को विद्यालय भेज वाकई में कानून के अनुसार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था लागू करना चाहते हैं तो बहुत सारे विद्यालयों की जरूरत पड़ेगी। मंत्रियों और नौकरशाहों से मिलने के लिए जिन भवनों में उनके कार्यालय स्थित हैं वहां बिना पास के प्रवेश ही नहीं मिलता। इन जगहों पर जाने के लिए पास की अनिवार्यता खत्म कर देनी चाहिए। जब सुरक्षा खत्म की जा सकती है तो यह क्यों नहीं? नौकरशाह इसका कड़ा विरोध करेंगे, लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि वे जनता की सेवा के लिए नियुक्त हैं। जनता से दूरी बनाकर वे भला उसका कल्याण कैसे कर सकते हैं।
आप की सरकार का सबसे रोमांचकारी पक्ष होने वाला है जनता की भागीदारी से सभी निर्णय लेना। जब निर्णय बंद कमरों की जगह खुली बैठकों में होंगे तो उनके गलत होने की संभावना कम हो जाएगी। भ्रष्टाचार पर तो रोक लगेगी ही। जब निर्णय खुले में होंगे तो नेताओं और नौकरशाहों को सुरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। चूंकि जनता आप के नेताओं व मंत्रियों पर पैनी नजर भी रखने वाली है इसलिए उनके लिए कोई गलत काम करना मुश्किल होगा। परंतु यदि कोई गलत करता भी है तो जनता उसे गलत काम करने नहीं देगी अन्यथा वह पार्टी से निकाल दिया जाएगा। दिल्ली में आप का शासन भारतीय राजनीति का अभिनव प्रयोग सिद्ध होने वाला है। इसकी सफलता की संभावनाएं काफी हैं क्योंकि इसे बहुत सोच-समझ कर किया जा रहा है। यह सिर्फ भावनाओं के आधार पर नहीं है। इसकी सफलता की इस देश के आम आदमी को काफी उम्मीदें हैं क्योंकि उसकी पीड़ा का इलाज इस नए प्रयोग में हो सकता है। उसे इसी बात से हर्ष हो रहा है कि उसके वोट के बल पर इस देश की सड़ी-गली राजनीतिक व्यवस्था को बदला जा सकता है, जिसकी उम्मीद करना लोगों ने बंद कर दिया था।
[लेखक संदीप पांडे, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता हैं]

विषमता का विकास और राजनीति

जैसे-जैसे सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है।
कांग्रेस और भाजपा अपने अधिकतम भौतिक और मानवीय संसाधन झोंक कर इस चुनाव को किसी भी तरह जीत लेने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके पास विकास के अलावा और कोई खास मुद्दा नहीं है और चूंकि इसे पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है इसलिए इसमें वह चमक नहीं बची है जो लोगों में बेहतर भविष्य की आस जगा सके। जनता पिछले दो दशक में विभिन्न सरकारों द्वारा चलाई गई विकास परियोजनाओं के हश्र देख चुकी है। इनकी बदौलत कोई एक दर्जन बड़े शहर मेट्रो-महानगरों में, छोटे शहर अपेक्षाकृत बड़े शहरों में और कस्बे छोटे नगरों में बदल गए हैं। सड़कें अनेक लेन वाली हो गई हैं और उन पर जगह-जगह विशाल फ्लाइओवर बन गए हैं। इन पर चौपहिया वाहनों की संख्या बढ़ती और रफ्तार तेजतर होती जा रही है। जगह-जगह बहुमंजिला इमारतों वाले आवास, शॉपिंग मॉल और मनोरंजन के लिए मल्टीप्लेक्स बनते जा रहे हैं। मेट्रो का एरिया फैलता जा रहा है। इनके अलावा और भी बहुत कुछ है जिसे विकास के गिनाया जा सकता है।

इसके बरक्स हजारों गांव उजड़े हैं, कृषियोग्य जमीन सिकुड़ती गई है। स्थानीय उद्योग-धंधे ठप हुए हैं जिससे बेकारी बढ़ी है। जो कल तक खेती या व्यवसाय करते थे, आज शहरों में सफेदपोश लोगों की सेवा कर पेट भर रहे हैं। सड़कें चौड़ी हुई हैं, मगर उन पर पैदल, साइकिल से या रिक्शे में चलने वाले लोगों के लिए जगह सिकुड़ती गई है। गगनचुंबी इमारतों के बरक्स झुग्गी-झोपड़ियों का विस्तार हुआ है। विकास की उल्लेखनीय उपलब्धियां बीस प्रतिशत से अधिक लोगों को लाभान्वित नहीं कर पाई हैं। इसीलिए अमर्त्य सेन मानते हैं, ‘गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है। मैं उनसे सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है।’
पिछले बीस सालों में ‘फोर्ब्स’ की सूची के अनुसार विश्व के सर्वाधिक वैज्ञानिकों में भारत के भी कई लोग शामिल हुए हैं और देश में भी अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि उतनी ही तेजी से गरीबों की संख्या कम नहीं हुई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके  हैं कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों और अल्पसंख्यकों को इस विकास से बहुत कम लाभ हुआ है। परिणामस्वरूप गैर-बराबरी बेइंतहा बढ़ी है।
ऐसा नहीं कि यह हकीकत राजनीतिक दलों को दिखाई नहीं दे रही। पर वे इस विषमतावर्धक  विकास को सही राह पर लाने के लिए तैयार नहीं दिखाई देते। हों भी कैसे? उन्हें कोई रास्ता भी तो दिखाई नहीं देता। वह दिख सकता है अगर वे गांधी, आंबेडकर, लोहिया, मार्क्स जैसे लोकहितैषी दार्शनिकों की सुझाई राहों में से किसी एक को पकड़ें। लेकिन पंूजीवादी विकास के समर्थकों ने घोषित कर दिया कि विचारधाराओं का अंत हो गया है, और हमने उसे ज्यों का त्यों मान लिया है। अब हम विचार के नाम पर उन मुद्दों को सामने ला रहे हैं जिनका वास्तव में हमारे जीवन से कोई मतलब ही नहीं है, जैसे सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता आदि। इन मुद्दों को राजनीतिक दल ही उछाल रहे हैं और इन्हें देश, धर्म, जाति या संप्रदाय की अस्मिता से जबर्दस्ती जोड़ कर लोगों की भावनाओं को उद्वेलित कर रहे हैं ताकि जनमत को अपने पक्ष में कर चुनाव जीतते रहें।
अफसोस है, इस तरह के भ्रामक मुद्दों को जीवन मरण का प्रश्न बनाने में मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग भी उनका साथ दे रहा है। यह देख कर हैरानी होती है कि वामपंथी और समाजवादी सोच वाले दल भी आर्थिक, सामाजिक समानता के अपने अहम मुद्दे को भुला कर सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए एकजुट होने की दिखावटी कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान विकास, जो वास्तव में पंूजीवाद का ही एक चमकीला मुखौटा है, चुनाव के इसी तरह के नाटक को पसंद करता है। इसमें लोकतंत्र बना रहता है, अधिकतर लोग विकास के लाभ से वंचित भी रहते हैं और कुछ लोग फायदा भी उठाते रहते हैं।
ऐसी स्थिति में आंबेडकर के 25 नवंबर 1949 को दिए गए उस चेतावनी भरे वक्तव्य को फिर से याद कर लेना देश की राजनीति के सूत्रधारों के लिए मार्गदर्शक हो सकता है। आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम लोग जिस जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं उसमें हम सबको एक नागरिक एक वोट का अधिकार मिल जाएगा, लेकिन यह राजनीतिक समानता तब तक कोई विशिष्ट फलदायक साबित नहीं होगी जब तक हम सदियों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक असमानता को पूरी तरह से मिटा नहीं देते। अगर हम ऐसा निकट भविष्य में नहीं कर पाते हैं तो विषमता-पीड़ित जनता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है।
पिछले पैंसठ वर्षों में गैर-बराबरी कम होने की जगह बढ़ी है। लाखों किसानों का आत्महत्या कर लेना और देश के दो सौ से अधिक जिलों का नक्सलवाद के प्रभाव में चले जाना उस विस्फोटक स्थिति के आगमन की पूर्व सूचना है। जिन्हें देश और समाज की चिंता है उसी चेतावनी को बार-बार दुहरा रहे हैं। फिर भी इसे अनसुनी करके हम पिछले चुनावों की तरह विकास जैसे अमूर्त, सांप्रदायिकता जैसे अंध-भावनात्मक और राम मंदिर जैसे अस्मितावादी मुद्दों को ही उछाल कर चुनाव लड़ते और जीतते हैं। अगर हम चाहते हैं कि यह चुनाव हमारे लोकतंत्र के लिए युग परिवर्तनकारी साबित हो तो हमें इसे शाइनिंग इंडिया बनाम बहुजन भारत की लड़ाई में बदलना होगा। हमें यह समझना होगा कि आज हम ऐसी भयावह विषमता के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें परंपरागत रूप से सुविधा संपन्न, विशेषाधिकार युक्त थोड़े-से लोगों ने शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार और सांस्कृतिक-शैक्षणिक क्षेत्र पर अस्सी-पचासी प्रतिशत तक कब्जा जमा रखा है, वहीं बहुसंख्यक दलित-पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक जैसे-तैसे गुजारा करने के लिए मजबूर हैं।
यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें पार्टियां अधिकतर लोगों की बदहाली दूर करने के बजाय अमूर्त और भावनात्मक मुद्दों को प्राथमिकता दे रही हैं। विशाल वंचित वर्ग के सब्र का बांध न टूटे इसके लिए उन्हें कभी मामूली पेंशन, कभी मनरेगा तो कभी खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाओं के लॉलीपॉप देकर बहकाया जा रहा है। लोगों को आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के बजाय उन्हें याचक और पराश्रयी बनाने की कोशिश हो रही है।
कांग्रेस पहले गरीबी हटाने की बात करती थी, फिर अपना हाथ गरीबों के साथ रखने का वादा करने लगी, अब पूरी रोटी खिलाने का राग जपने लगी है। उधर भाजपा ने कभी अंतिम जन के उत्थान की अंत्योदय योजना शुरू की थी लेकिन अब उसके पास ले-देकर राम मंदिर निर्माण के अलावा कोई मुद््दा नहीं बचा है। आश्चर्य है कोई राजनीतिक दल विकास परियोजनाओं से पैदा हो रही और दिन-प्रतिदिन बढ़ रही विषमता को देखते हुए भी उसे दूर करने और समतामूलक समाज बनाने का झूठा-सच्चा संकल्प तक नहीं ले रहा है। सच है विकास की जिस राह पर हम इतनी दूर तक चले आए हैं वहां से वापस नहीं लौटा जा सकता, लेकिन गैरबराबरी के पैदा होने और निरंतर बढ़ते जाने के कारणों को तो खोजा जा सकता है ताकि उनका कोई निराकरण निकाला जा सके।
यों तो हम विकसित देशों जैसा बनने का सपना देखते हैं; इन देशों की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति के विभिन्न घटकों को आदर्श मानते हुए उन्हें अपनाने के लिए आतुर रहते हैं; लेकिन उनके बहुजन समावेशी समाज के मॉडल के बारे में कभी सोचते तक नहीं।
हमारा संविधान सब नागरिकों को समान अधिकार देता है। उस समानता को प्राप्त करना और बनाए रखना हर एक सरकार का प्रमुख कर्तव्य होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हर प्रकार के भेदभाव को दूर रखते हुए सब नागरिकों को देश की निर्माणकारी योजनाओं में बराबर की भागीदारी दी जाए। विश्व के वे लोकतंत्र, जो विकास और समृद्धि के स्पृहणीय मुकाम तक पहुंच चुके हैं, उनका इतिहास इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि उन्हें यह सफलता अपनी सारी जनता को साथ लेकर चलने से ही मिली है।
विविधताएं सब देशों में रही हैं लेकिन सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए उन्होंने अपने-अपने तरीके से ‘एफर्मेटिव एक्शन’ को अपनाकर सबको राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों से जोड़ा है। हमारे जैसे ही कुछ देश इसे यह कह कर नकारते हैं कि यह पश्चिमी या अमेरिकी अवधारणा है, मगर दरअसल यह विषमता को बनाए रखने का एक बहाना है। उनकी अन्य सब बातों का तो हम सहर्ष अनुकरण करते हैं, फिर इससे ही परहेज क्यों!
जब सरकारों का गठन होता है तो कोशिश यह रहती है कि हर वर्ग और क्षेत्र को प्रतिनिधित्व मिले। फिर हम सेना, न्यायालय, सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तरों की नौकरियों में, सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के आपूर्ति-सौदों में, सड़क, भवन निर्माण आदि के ठेकों में, पार्किंग-परिवहन में, सरकारी और निजी स्कूलों-कॉलेजों, विश्वविद्यालयों के संचालन, प्रवेश और शिक्षण में, एनजीओ, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया, देवालयों के संचालन और पौरोहित्य कर्म में और सरकारी खरीदारी आदि में दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और सवर्णों को बराबर-बराबर हिस्सेदारी क्यों नहीं दे सकते? जातिवार जनगणना करके उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें भागीदार बनाया जा सकता है। इससे जनसंख्या का वह बड़ा हिस्सा जो उक्त क्षेत्रों में एक प्रकार से अनुपस्थित-सा है, सार्वजनिक उद्यम का अंग बन जाएगा और सब मिलकर देश की प्रगति में जब संलग्न होंगे तो सर्वसमावेशी और मानवीय चेहरे वाले विकास की अवधारणा साकार हो सकेगी।
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीपीएल परिवारों को तीन रुपए किलो अनाज देने का वादा किया तो भाजपा ने इसे घटा कर दो रुपए कर दिया। क्षेत्रीय पार्टियों ने भी इसी तरह के वादे किए, पर किसी ने समस्या की जड़ पर प्रहार करने के लिए सब वर्गों को विकास परियोजनाओं और अर्थोत्पादकसंसाधनों में उचित भागीदारी देने की बात नहीं की। इसका साफ मतलब है कि वर्तमान व्यवस्था असमानता को बनाए रखना चाहती है ताकि पंद्रह-बीस प्रतिशत सुविधासंपन्न लोगों का वर्चस्व बना रहे। ध्यान रहे यही वह वर्ग है जिसके संसाधनों से राजनीतिक दल चुनाव जीतते हैं और सरकार बनाते हैं। ऐसी सरकारें उन्हीं नीतियों का अनुसरण करती हैं जो इन वर्गों के हित में होती हैं और इन्हें फायदा पहुंचाती हैं। यह एक ऐसा कुलीन लोकतंत्र है जिसमें वंचित वर्गों के वोट का उपयोग संपन्न लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किया जाता है।